इमारत एक नयी खड़ी की गयी है,
शहर के बीचो-बीच
मौल बुलाते हैं इसे सारे;
आगे थोडा चलो तो राजभवन पड़ता है,
अनैतिक नीतियाँ सब यहीं से नियति बनती हैं
उन लोगों की जिन्हें आम आदमी बुलाते हैं;
दायें मुड़ जाओ तो थिएटर है एक,
शहर-विदेशों में नाम बहुत है इसका
झील तक उतरती हैं सीढियाँ इसकी
और क्षमता ३०० बताते हैं बैठने की;
पता नहीं लोग फिर भी क्यूँ फूटपाथ पर सोते हैं!
Achcha likha hai.
ReplyDeleteBut I feel like more should've been there to it. Seems unfinished.
ReplyDeletekyuki har cheez ke aajkal paise lagte hain
ReplyDelete-Dhiraj
मैं रोया बहुत उस झील के किनारे
ReplyDeleteजो सूखी पड़ी थी
न कोई कलकल, न कोई हलचल
सूखे वो पत्ते गिरे थे बेचारे
आज झील में फिर से पानी बहुत है
पता नहीं फिर क्यूँ लोग पानी को रोते हैं
@ Pandey ji - waah bhai wah.
ReplyDelete@ Dhiraj - thanks for visiting.
@ Heastia - somehow it seemed complete to my head. Anyways thanks for honest commenting.
@Shakti Dwivedi: It's *Hestia
ReplyDeleteAnd anyway, you always seem to think what I don't seem to think! :P
@ hestia: sorry.
ReplyDeleteIt feels like you and Pandey sat together to write this one. Two beautiful interpretations of the same theme.
ReplyDeleteअभिव्यक्ति में इस, देखा है डूबते तुमको शक्ति!
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