Wednesday, March 2, 2011

शहर मेरा..

इमारत एक नयी खड़ी की गयी है,
शहर के बीचो-बीच
मौल बुलाते हैं इसे सारे;

आगे थोडा चलो तो राजभवन पड़ता है,
अनैतिक नीतियाँ सब यहीं से नियति बनती हैं
उन लोगों की जिन्हें आम आदमी बुलाते हैं;

दायें मुड़ जाओ तो थिएटर है एक,
शहर-विदेशों में नाम बहुत है इसका
झील तक उतरती हैं सीढियाँ इसकी
और क्षमता ३०० बताते हैं बैठने की;


पता नहीं लोग फिर भी क्यूँ फूटपाथ पर सोते हैं!

9 comments:

  1. But I feel like more should've been there to it. Seems unfinished.

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  2. kyuki har cheez ke aajkal paise lagte hain

    -Dhiraj

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  3. मैं रोया बहुत उस झील के किनारे
    जो सूखी पड़ी थी
    न कोई कलकल, न कोई हलचल
    सूखे वो पत्ते गिरे थे बेचारे

    आज झील में फिर से पानी बहुत है
    पता नहीं फिर क्यूँ लोग पानी को रोते हैं

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  4. @ Pandey ji - waah bhai wah.
    @ Dhiraj - thanks for visiting.
    @ Heastia - somehow it seemed complete to my head. Anyways thanks for honest commenting.

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  5. @Shakti Dwivedi: It's *Hestia
    And anyway, you always seem to think what I don't seem to think! :P

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  6. It feels like you and Pandey sat together to write this one. Two beautiful interpretations of the same theme.

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  7. अभिव्यक्ति में इस, देखा है डूबते तुमको शक्ति!

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