Tuesday, January 18, 2011

मेरा तखल्लुस

जब इस ब्लॉग को शुरू करने का विचार आया तो मैंने अपने उसी दोस्त से इस बारे में बात की उसने मेरे विचार को वैसे ही प्रोत्साहित किया जैसे स्वामी रामदेव अपने किसी चेले को प्राणायाम करके गैस की बीमारी से निजत पा लेने पर करते हैं मैंने उसी छण उस मित्र को अपना गुरु मान लिया और सोचा की सारी शंकाओं का निवारण करा लूँ|
पहली समस्या बड़ी ही आम है, पर है बड़ी ही जटिल देश के सभी बड़े कवियों, साहित्यकारों का तखल्लुस रहा है, और चूँकि मैं ये मान चूका था की मैं भी हिंदी साहित्य का उभरता हुआ चेहरा हूँ; बिना तखल्लुस के मैं अनाथों जैसा महसूस कर रहा था मैंने गुरुदेव पर प्रश्न का पहला बाण छोड़ा
मैंने उनसे कहा "आप ही कोई अच्छा सा तखल्लुस सुझाइए" गुरूजी ने बड़े प्रेम से अपने बायीं हाँथ की छोटी ऊँगली (जिसका इस्तेमाल लोग मुख्यतया ये दिखाने के लिए करते हैं की उन्हें जल्द से जल्द सड़क के किसी कोने या पेड़ के आड़ की जरूरत है) कान में घुसेड़ी और जोर से कम्पन करने लगे ऐसा करते ही उन्होंने आँखें मूँद लीं ऐसा लग रहा था जैसे आँखें मूंदते ही उन्हें किसी असीम ज्ञान की प्राप्ति हुई है, चेहरे पर सुकून के साथ एक मधुर मुस्कान गयी थी जब अगले दो मिनट तक वो इसी मुद्रा में रहे तो मेरी समझ में आया की शायद मेरे इस 'तखल्लुस' के इस्तेमाल से उन्हे तकल्लुफ हुआ है मैंने सरल हिंदी में उन्हें दिनकर, दीनबंधु निराला और गुलज़ार का उदहारण दे कर समझाया की इसे अंग्रेजी में सूडोनेम कहते हैं| सूडोनेम और लेखक के नाम में वही रिश्ता होता है जो सुदोनेम की स्पेल्लिंग और उच्चारण में होता है इसे लिखते pseudoname हैं और बोलते समय p को गायब कर देते हैं। उसी तरह लेखक लिखता कुछ भी अनाप शनाप है लेकिन गाली खाने के डर से कोई और नाम इस्तेमाल करता है| गुरूजी ने फिर भी आँखें नहीं खोली और साबित कर दिया की वे सच्चे सतयुगी गुरु हैं, पहले छात्र की परीक्षा लेते हैं फिर कुछ बताते हैं आज के टुच्चे ट्यूशन पढ़ने वाले मास्टरों की तरह नहीं, जो पहले फीस लेते हैं फिर ज्ञान की घूँट पिलाते हैं और अंत में परीक्षा लेते हैं|
मैं अपनी काबिलियत साबित करने के लिए थोड़ी देर सोच कर बोला "आज़ाद रख लेता हूँ| मेरे विचारों की तरह स्वछन्द नाम है|" गुरुदेव के नयन कमल धड़क से खुल गए
जैसे शिव जी का तीसरा चक्षु कामदेव को भस्म करने के लिए खुला था| उन्होंने कहा "नाम ही रखना है तो कोई धार्मिक नाम रखो; लाल लंगोटी वाले का ध्यान करो और कोई अच्छा नाम बताओ| हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ऐसे ही थोड़े ना फेमस हो गए, हनुमान जी का आशीर्वाद था की ये सब हो पाया|" मैं अपने साथ साथ प्रभु को बदनाम नहीं करना चाहता था सो मैंने सोचा कोई ऐसा नाम रख लिया जाये जो आसानी से भगवन की तरफ ऊँगली ना करता हो| दिमाग के घोड़े को मैंने जोर से चाबुक मारा और तेज़ दौड़ाया| हनुमान महाप्रभु के अनेक नामो में से एक अंजनिपुत्र है मैंने सोचा ये नाम अच्छा रहेगा, अनुप्रास अलंकार का उदहारण भी बनाने की क्षमता रखता है| मैंने गुरुदेव की तरफ असीम आदर भाव से देख कर कहा - "अंजनी आज़ाद रख लेता हूँ"| गुरुदेव की तीसरी आँखें फिर खुलीं उन्होंने मुझे देख कर कहा - "साले! अंजनी हमेशा से आज़ाद थे| ज्यादा फैंटम ना बनो| हम सब तो उनके चरणों की धुल हैं, उनके दास| नाम रखो अंजनी का दास|"

मुझे ये नाम कुछ ज्यादा पसंद नहीं आया| असल में मुझे इस बात का भय था की अगर कभी गलती से भी नाम लिखने में गलती हुई तो लोग मुझे कोई बंगाली लड़की(अन्जनिका दास) समझ कर मेरा मेल बॉक्स स्पैम से ना भर दें| भारतवर्ष में लोग नाम पढ़ कर ही कयास लगा लेते हैं की लड़की कितनी खूबसूरत होगी| इन्टरनेट का इस्तेमाल जानती है तो जरूर orkut और facebook जैसी साईट पर इसके फोटो होंगे| फिर उनका बहुत सा समय उसकी कम कपड़ों वाली फोटो खोजने को समर्पित कर दिया जाता है| तो मैंने अपने बेरोजगार और एन्जीनीरिंग की पढाई करने वाले अनेको भाइयों का बहुमूल्य समय बचने के लिए और अन्जनिका नाम की हर लड़की की आबरू की रक्षा करने के लिए नाम अंजनिदास आज़ाद रख लिया|

शुरुआत

एक मित्र ने मुझसे कहा की मेरा लिखा व्यंग उसे बहुत पसंद आता है, और मुझे लिखते रहना चाहिए।(वैसे मैंने आज तक व्यंग नहीं लिखा है, शायद मेरे लिखने की भद्दी शैली ने उसे हसने पर मजबूर किया हो) फिर भी मैं उसी तरह प्रसन्ना हुआ जैसा की इमरान हाश्मी होता है जब उसे कोई अच्छा कलाकार कहता है। खुद को हिंदी साहित्य का उभरता हुआ चेहरा जान कर मैंने उसकी सलाह बिलकुल वैसे ही मान ली जैसे मनमोहन सिंह ने सोनिया गाँधी की सलाह मान ली और देश के प्रधानमंत्री बन बैठे। अब इस ब्लॉग का भी वही हाल होगा जो इस देश का है। यहाँ भी अनेकता में एकता होगी, मतलब मैं अपने अनेको घटिया विचार यहाँ व्यक्त करूँगा। फिर मेरे जिम्मेदार पाठकों को यह भार सौंप दूंगा की उनको एक सूत्र में पिरो कर अपने हिसाब का कोई मतलब निकल लें। इस ब्लॉग की संरचना भी प्रजातान्त्रिक होगी यानि की हर पाठक को मेरे व्यक्तव्यो पर टिपण्णी करने की आज़ादी होगी मगर उनको मिटने की शक्ति मेरे हाथों में होगी।
अभी मैं पूरी तरह से मनमोहन सिंह जैसा नेता नहीं बना हूँ और इससे बड़ा भाषण यहाँ नहीं लिख सकता। बस कामना करता हूँ की आगे कुछ ऐसा लिख सकूँगा जो आप लोगों को पढने में रोचक लगे।

-अंजनिदास आज़ाद