Tuesday, June 7, 2011

होना बातों का असामान्य -II

अपना पिछला लेख लिखते वक़्त मुझे बुरा लग रहा था| उस लड़के के लिए नहीं, खुद के लिए| मैं यह सोच रहा था की मैं क्यूँ आखिर वही कर रहा हूँ जिससे मैं सबसे ज्यादा चिढ़ता हूँ| थोड़ी देर के बाद जब अमी ने मुझसे ये कहा की यह मेरा आज तक का सबसे अच्छा पोस्ट है तो मुझे और भी बुरा लगा| मैं ऐसी चीज़ें नहीं लिखना चाहता जो लोगों को थोड़ी देर के लिए सोचने पर मजबूर कर दे, और दुसरे आदमी की व्यथा वैसी की वैसे रह जाये| खैर मैं पोस्ट कर चूका था और कोई सत्रह लोगों ने पोस्ट पढ़ लिया था तो उसको मिटाना मेरी मूर्खता होती| इसीलिए ये पोस्ट लिख रहा हूँ ताकि आपने भाव और सरलता से स्पष्ट कर सकूँ|

जिस लड़के का ज़िक्र मैं कर कर रहा था उसका नाम नीलेश है| ये मुझे अगले दिन उसके भाई से पता चला| अगले दिन से चूँकि नाट्य कार्यशाला आयोजित होने वाली थी सो मैं बड़ा उत्साहित था| मुझे बड़ी ख़ुशी हो रही थी (मेरे अन्दर ये भाव था की एक गूंगे लड़के के साथ नाटक कार्यशाला कर के मुझे कुछ नया सिखने को मिलेगा और मैं थोड़ी देर के लिए उसके उल्लास का कारण बन सकूँगा, मनुष्य हमेशा देवता बनने के ही सपने देखता है) खैर अच्छा हुआ की मेरे मंसूबों पर पानी फिर गया| मेरी संस्था के लोगों ने उसका चयन ही नहीं किया था| उन्हें ये लग रहा था की समय कम है और ऐसे में एक गूंगे लड़के के साथ मंच पर काम नहीं किया जा सकता| मैं देवता बनने से और अन्दर ही अन्दर कुंठित होने से बच गया| मैं ये सब बस अपनी भड़ास मिटने के लिए लिख रहा हूँ| क्युंकी मुझे पता है की मेरे इस पोस्ट से भी ना तो उस लड़के का और ना मेरा कोई भला होने वाला है|

खैर अब आगे की बात करते हैं| मेरी कुंठा का किस्सा वहीं ख़त्म नहीं हुआ| नाट्य कार्यशाला में हमने एक परिचय सत्र आयोजित किया (introduction session) उनमें से कुछ बच्चों के सपने सुन कर मैं अचंभित रह गया| हम में से कई लोग बचपन में ऐसी चीज़ें करना चाहते थे जिसके बारे में सोच कर अब हंसी आती है,जैसे की मैं ट्रक्टर चलाना चाहता था, फिर कुछ समय के लिए मैं यातायात पुलिस वाला बनाना चाहता था| ये सपने मासूमियत में घर कर गए थे| जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया, एक सामाजिक भेड़-भाव के भवन में मेरा प्रवेश हुआ और मेरे सपने भी उसी प्रकार से बदलते चले गए| लेकिन जब मैंने इन बच्चों की सीमित आकांक्षाएं देखीं तो मुझे झटका लगा| एक बच्चे ने कहा- मैं बारहवीं कक्षा (१२ क्लास) तक पढना चाहता हूँ| दुसरे को नाकेदार बनाना था| और तीसरे को चौक के नाले पर अपनी पान की दूकान खोलनी थी| ये उनके बड़े सपने थे| जैसे प्रशाशनिक अधिकारी बनाना मेरे लिए एक बड़ा सपना था, ये सपने उनके बड़े सपने थे| बारहवीं तक पढ़ पाना मुश्किल था, पान की दुकान खोलना एक बड़ा काम था और नाकेदार बनने के बारे में तो वो सोच भी नहीं सकते| जीवन कठिन है| मुझे इन बातों को ऐसे मंच पर उठाना बहुत ही अप्रासंगिक और व्यंगात्मक लगता है| यहाँ ऐसी बातें करने से दुनिया में कोई परिवर्तन नहीं होता| इसीलिए मैंने निश्चय किया है की मैं अब से ऐसे लेख लिखूंगा ही नहीं। ये लेख इस कड़ी का आखिरी लेख है, इसके बाद यहाँ फिर से बस वही लिखा जायेगा जिसके लिए ये ब्लॉग शुरू किया गया है - व्यंग।