Wednesday, February 9, 2011

कुछ हट कर

मेरे साथ आज कल चीज़ें कुछ सही नहीं हो रहीं| मेरे आस पास रोज कुछ ना कुछ ऐसा हो रहा है जो मुझे असहज बना देता है| कुछ ३ दिन पहले मैंने अदम गोंडवी की कविता पढ़ी जिसकी पंक्तियाँ कुछ इस तरह हैं:
जिसके हाथों में छाले पैरों में बिवाई है,
उसी
की मेहनत से रौनक आपके बंगलों में आई है|
कितनी
महंगी है रोटी इस देश में,
ये
वो औरत बताएगी जिसने अपना जिस्म बेच कर ये कीमत चुकाई है|

कल रात जब मैं घर लौट रहा था तो मैं उस दुकान पर गया जहाँ मेरे दोस्त काफी पीने जाते हैं, और एक कप काफी के १०० रुपये दे आते हैं| उस दुकान के सामने चाकलेटों की नुमाइश लगी होती है, जिससे वो बड़े घर के छोटे-छोटे बच्चों को बरगलाते हैं | कल जो मैंने देखा वो मुझे अच्छा नहीं लगा, मैंने देखा एक छोटी सी बच्ची गुब्बारा हाथ में लिए वहां रो रही थी| उसके पिता ने चाकलेट दिलाने से इनकार कर दिया था| उसके पिता को देख कर ऐसा जान पड़ता था की उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है| यूँ तो मुझे कोई अधिकार नहीं है की मैं उसके चेहरे की हताशा या उसकी वेशभूषा देख कर यह मत बना सकूँ की उसकी आर्थिक स्थिति क्या है| पर एक मानवीय स्तर पर सोचने के बाद मैं ये मानाने पर मजबूर था| एक मजबूर बाप के आलावा कौन है जो चंद पैसे खर्च कर अपने बच्चे की ख़ुशी नहीं खरीदना चाहेगा?
मुझे यह सब देख कर अच्छा नहीं लगा| और एक अच्छे भारतीय की तरह कुछ करने के बजाये मैंने उस घटनास्थल से ही मुह मोड़ लिया। मुझे मालूम नहीं था की घर पर अगला हमला मेरा पहले से ही इंतज़ार कर रहा था| आज कल मैं बासी अख़बार पढने लगा हूँ| दिल्ली में छपने वाला THE HINDU शाम ६ बजे भोपाल पहुँच जाता है| कल का अख़बार खोलते ही पहली तस्वीर ने ही मेरा मन विचलित कर दिया। आगे जब पूरी खबर पढ़ी तो मुझे और बुरा लगा।


राजपुरुषों को रिझाया जा रहा है, राग दरबारी सुनाया जा रहा है|
बद्ज़ुबानो चुप हो जाओ दिल्ली शहर में, यहाँ उत्सव मनाया जा रहा है|

2 comments:

  1. Sahi baat hai. Kabhi kabhi samajh nahin aataa ki samadhan kya hai. Sawalon se thak jata hai man.

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  2. Sometimes I feel like we can even make comments on these matters because we are not hungry in the stomach.

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