Thursday, September 29, 2011
Sunday, September 25, 2011
देश का युवा
Tuesday, August 23, 2011
घूमते रहे सड़कों पर
रात भर
कुछ नारों की गंध
तैरती रही हवा में
देर तक
कल रात फिर एक आवारा भीड़ ने
क़त्ल किया
मौन का
Tuesday, July 26, 2011
दो खबरें
अब मुद्दे पर आता हूँ| गए दिनों अखबार में दो खबरें पढ़ कर बड़ा रस मिला| पहली खबर थी की पत्रकारों ने अपनी सुरक्षा के लिए नए और सख्त कानून की मांग की है| अपनी कौम के लोगों ने ऐसी आवाज़ बुलंद की है पढ़ कर अच्छा लगा| ये कुत्तों का स्वाभाव होता है, एक को भौंकता देख कर सब भौंकते हैं| हम भी उस दिन खूब भौंके| लगा जैसे हमारी ही सुरक्षा बढ़ने वाली है| सरकार हर पत्रकार को z+सिक्यूरिटी दे देगी| फिर हम गली के नेता से बड़े हो जायेंगे, हमारे आगे-पीछे भी बंदूकधारी घूमेंगे| अपने गली में सबसे बड़ा बनाना भी हर कुत्ते की ख्वाहिश होती है| लेकिन अगली खबर पढ़ कर दिल फिर छोटा हो गया| सर्वोच्च न्यायलय के दो न्यायधीशों ने 2G फ़ोन मामले की सुनवाई से अपने हाथ खिंच लिए| उनका कहना था की उनकी जान को खतरा हो सकता है|
z+ सिक्यूरिटी में घूमने का सारा प्लान धरा का धरा ही रह गया| जब इस देश के न्यायधीश, अपने लिए कुछ नहीं करवा पा रहे हैं तो पत्रकार ही भला क्या कर लेंगे
वैसे देखा जाये हो अपने देश में पत्रकारों को कई खतरे हैं| सबसे बड़ा खतरा है नौकरी का| हंसी के फव्वारे और राशि फल दिखा कर कब तक काम चलाएंगे| पत्रकारिता तो सबने बरसों पहले ही छोड़ दी है| फिर आज कल तो प्रचार वालों ने अपना 24x7 चैनेल खोल लिया है| जब चैनेल ही नहीं होगा तो ये हमारे नामी गिरामी पत्रकार क्या करेंगे?
फिर याद आया की बहुत पहले एक शब्द हुआ करता था - शर्म| ब्लू फिल्म की अभिनेत्री के कपड़ों की तरह धीरे-धीरे ये देश से गायब हो गया है| ना तो देश के न्यायाधीशों को शर्म आई ना नए कानून की मांग करते हुए पत्रकारों को|
Tuesday, June 7, 2011
होना बातों का असामान्य -II
जिस लड़के का ज़िक्र मैं कर कर रहा था उसका नाम नीलेश है| ये मुझे अगले दिन उसके भाई से पता चला| अगले दिन से चूँकि नाट्य कार्यशाला आयोजित होने वाली थी सो मैं बड़ा उत्साहित था| मुझे बड़ी ख़ुशी हो रही थी (मेरे अन्दर ये भाव था की एक गूंगे लड़के के साथ नाटक कार्यशाला कर के मुझे कुछ नया सिखने को मिलेगा और मैं थोड़ी देर के लिए उसके उल्लास का कारण बन सकूँगा, मनुष्य हमेशा देवता बनने के ही सपने देखता है) खैर अच्छा हुआ की मेरे मंसूबों पर पानी फिर गया| मेरी संस्था के लोगों ने उसका चयन ही नहीं किया था| उन्हें ये लग रहा था की समय कम है और ऐसे में एक गूंगे लड़के के साथ मंच पर काम नहीं किया जा सकता| मैं देवता बनने से और अन्दर ही अन्दर कुंठित होने से बच गया| मैं ये सब बस अपनी भड़ास मिटने के लिए लिख रहा हूँ| क्युंकी मुझे पता है की मेरे इस पोस्ट से भी ना तो उस लड़के का और ना मेरा कोई भला होने वाला है|
खैर अब आगे की बात करते हैं| मेरी कुंठा का किस्सा वहीं ख़त्म नहीं हुआ| नाट्य कार्यशाला में हमने एक परिचय सत्र आयोजित किया (introduction session) उनमें से कुछ बच्चों के सपने सुन कर मैं अचंभित रह गया| हम में से कई लोग बचपन में ऐसी चीज़ें करना चाहते थे जिसके बारे में सोच कर अब हंसी आती है,जैसे की मैं ट्रक्टर चलाना चाहता था, फिर कुछ समय के लिए मैं यातायात पुलिस वाला बनाना चाहता था| ये सपने मासूमियत में घर कर गए थे| जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया, एक सामाजिक भेड़-भाव के भवन में मेरा प्रवेश हुआ और मेरे सपने भी उसी प्रकार से बदलते चले गए| लेकिन जब मैंने इन बच्चों की सीमित आकांक्षाएं देखीं तो मुझे झटका लगा| एक बच्चे ने कहा- मैं बारहवीं कक्षा (१२ क्लास) तक पढना चाहता हूँ| दुसरे को नाकेदार बनाना था| और तीसरे को चौक के नाले पर अपनी पान की दूकान खोलनी थी| ये उनके बड़े सपने थे| जैसे प्रशाशनिक अधिकारी बनाना मेरे लिए एक बड़ा सपना था, ये सपने उनके बड़े सपने थे| बारहवीं तक पढ़ पाना मुश्किल था, पान की दुकान खोलना एक बड़ा काम था और नाकेदार बनने के बारे में तो वो सोच भी नहीं सकते| जीवन कठिन है| मुझे इन बातों को ऐसे मंच पर उठाना बहुत ही अप्रासंगिक और व्यंगात्मक लगता है| यहाँ ऐसी बातें करने से दुनिया में कोई परिवर्तन नहीं होता| इसीलिए मैंने निश्चय किया है की मैं अब से ऐसे लेख लिखूंगा ही नहीं। ये लेख इस कड़ी का आखिरी लेख है, इसके बाद यहाँ फिर से बस वही लिखा जायेगा जिसके लिए ये ब्लॉग शुरू किया गया है - व्यंग।
Saturday, May 28, 2011
होना बातों का, असामान्य|
मुझे लगा की वो मुझसे सकुचा रहा है और मैं उसके साथ मजाक करने लगा| मैंने कई बहाने किये पर वो कुछ नहीं बोला| मेरी एक सहकर्मी जो सुबह से उनके साथ काम कर रही थी, उसने कहा- "बहुत शर्मीला है, मुझसे भी कुछ नहीं बोला|" मुझे इस बात से खटका लगा, मैंने सोचा की इस बच्चे की चुप्पी तोड़नी ही होगी नहीं तो इस कार्यशाला का फायदा ही क्या होगा| मैं फिर से उससे बात करने की कोशिश करने लगा| पर पता नहीं क्यूँ मुझे उसके चेहरे पर शर्म का भाव नज़र नहीं आ रहा था| मुझे ऐसा लग रहा था की वो संकुचित नहीं परेशान है| उसके चेहरे से लाचारी झलक रही थी ना की संकोच| अब समूह के सारे बच्चे मेहनत से उकता चुके थे और उसका मजाक उड़ना शुरू कर दिया था| एक ने मजाक में कहा - भैया ये गूंगा है| पता नहीं क्यूँ मजाक में बोली गयी ये बात मुझे लग गयी| मैंने देखा की उसने चित्रकारी बहुत अछी की है| बच्चा संकुचित हो तो उसका असर हर काम पर पड़ेगा|
मैंने धीरे से उससे कहा, अपना नाम लिख दो यहाँ कागज़ पर, नहीं तो सबको पता कैसे चलेगा की ये किसने बनाया है| उसने झट से अपना नाम वहां लिख दिया| मेरे शारीर में बिजली सी दौड़ गयी और मैं सिहर गया|
उसके बाद मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया| मैं वहां असहज महसूस करने लगा| कैसे हम खुद को मिली हुई चीज़ों को अनदेखा करते हैं| अनादर करते हैं हर उस वरदान का जो हमें प्राप्त है| मेरी सहकर्मी जो सुबह से उसके साथ काम कर रही थी, उसने एक बार भी ये नहीं सोचा की दुनिया में ऐसे भी कई लोग हैं जिन्हें वो सब कुछ नहीं मिला जो हमें मिला है| कोई शर्मा रहा है ऐसा सोच कर हम उससे मुह मोड़ लेते हैं और उसका विकास और अवरुद्ध हो जाता है| फिर मैं ये सोचने लगा की इसके साथ आगे काम कैसे किया जाए, ताकि ये बाकी बच्चों जितना ही सीख सके| इसका भी कोई जवाब मुझे नहीं मिला| बाकी बच्चों को उसे चिढाने में मज़ा आ रहा था| उन्हें डांटना भी मुझे उचित नहीं जान पड़ा| वो बच्चे हैं, और उसे अपने जैसा ही समझ कर चिढ़ा रहे थे| उनके मन में और कोई दुर्भाव नहीं था|
मैं खुद को लाचार महसूस कर रहा था| और अब तक कर रहा हूँ|
Tuesday, May 10, 2011
समाप्ति
मैं भगवान् में नहीं मानता..इतना बोल कर उस लड़के ने हाथ पीछे खींच लिया| मैंने कब कहा की प्रसाद खाने के लिए भगवान् में मानना जरूरी है| प्रसाद को मिठाई समझ कर भी खाया जा सकता है| लो! ताज़े खोये का है ज़बरदस्त मीठा| भैरो ने फिर से मीठे का एक टुकड़ा उसकी तरफ बढाया| 'मैंने कहा ना मैं प्रसाद नहीं खाता.. आप नाहक जिद्द कर रहे हैं', लड़के ने झुंझला कर कहा|इस तिरस्कार से भैरो को गुस्सा आ गया| फिर यह लड़का उसके सामने था भी क्या, एक दुबला पतला बांस का सरकंडा| भैरो तीस साल का जवान था, शहर आने से पहले उसने पच्चीस साल पहलवानी की थी, ऊँचे कद और गठीले बदन का स्वामी था, उसकी काठी के सामने ये सुकुमार दो मिनट भी नहीं टिकता| पर भैरो ने खुद को संभाला, उसके बगल में जा बैठा| पहले तो मीठे के डब्बे का मुंह रब्बर से कस कर बाँधा फिर इस नवयुवक से मुखातिब हुआ|
नाम क्या है तुम्हारा?- भैरो ने प्यार से पुछा| मेरे नाम से यदि आपकी मंशा मेरा धर्म जानने की है तो बता दूँ की मैं पैदाइश से हिन्दू हूँ, लेकिन फिर भी इश्वर की यह जूठन मुझे ग्राह्य नहीं है| लड़के की आवाज़ में थोड़ा तीखापन था, जो भैरो भांप गया| भैरो ने आवाज़ में और थोड़ी मिसरी घोल कर कहा "मज़हब से मुझे क्या? मैं तो बस नाम जानना चाहता हूँ, ए, अबे के लहज़े में बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता|" लड़का तर्क करने पर उतारू था, उसने उसी लहजे में कहा, 'आप मुझे नास्तिक बुला सकते हैं|' इस पर भैरो सकपका गया| "यह नाम तो तुमने खुद रखा है, माता-पिता ने क्या नाम रक्खा है वो बताओ", भैरो ने क्रोध से पुछा| लड़के ने शायद एक छण में अपने वज़न और भैरो के गुस्से की तुलना की फिर धीरे से बोला- राजेश्वर| 'ओह! मतलब तुम ईश्वरों के राजा हो इसीलिए प्रसाद नहीं खाते', भैरो ने चुटकी लेते हुए कहा| लड़का झेंप गया, आत्मस्वाभिमान से भर कर बोला मैं आपसे पहले ही बतला चूका हूँ की मैं भगवान् में नहीं मानता| ठीक है तुम्हें इश्वर में विश्वास नहीं है मगर खोये में तो है, शुद्ध खोया है, मेरे घर पर बना है, उसे खाने में भगवान् से कैसी लड़ाई, भैरो ने रब्बर खोलते हुए कहा|
आप तकलुफ्फ़ मत कीजिये मैं खाऊंगा नहीं| मैं एक सच्चा नास्तिक हूँ और इतनी आसानी से मुझे आप बरगला नहीं सकते| राजेश्वर लम्बी बहस के मूड में था, भैरो ने अगला सवाल पूछ कर उसका पूरा साथ दिया| अच्छा तो चलो यही बता दो की तुम प्रभु की सत्ता में क्यूँ नहीं मानते- भैरो ने हँसते हुए पुछा
राजेश्वर: आप मुझे इश्वर में मानने का एक तर्क दीजिये, मैं आपको ना मानाने के सौ तर्क दूंगा|
भैरो: मेरे पास तो मानाने के सिवा कोई तर्क नहीं है, ना मैं खुद को तुम्हारी तरह आस्तिक बताता हूँ| तुम ही ना मानाने के कोई तर्क बता दो तो शायद मैं भी आस्तिक हो जाऊं|
रा: आप गलती कर रहे हैं| मैं आस्तिक नहीं नास्तिक हूँ| और इश्वर को ना मानाने का सबसे बड़ा तर्क यह है की मैंने या किसी ने भी इश्वर को नहीं देखा है| आप कृपया इसका खंडन इस प्रतिप्रशन से मत कीजियेगा की क्या तुमने हवा बहते देखि है? एक तो ये तर्क बड़ा पुराना है, दुसरे मुझे ये बड़ा बचकाना लगता है| मैंने हवा को तो महसूस किया है, मगर क्या इश्वर को किसी ने महसूस किया है? लड़के के चेहरे पर जीत की सी मधुर मुस्कान थी|
भै: पहले तो हम आस्तिकता के मतभेद को साफ़ कर लें| मैं तो ये कहता हूँ की जिसकी आस्था है वो आस्तिक है| जिसकी नहीं है वो नास्तिक है| मेरी इश्वर के प्रति जो आस्था है वो इतनी सुदृढ़ नहीं है| यदि तुम मुझे रिझा सको तो मैं इश्वर को छोड़ने में हठ नहीं करूँगा| तुम्हारी भगवान् को ना मानाने में जो आस्था है वो मेरी इश्वर को मानाने की आस्था से कहीं ज्यादा बड़ी है| इस वजह से तुम मुझसे बड़े आस्तिक हो|
रा: आप बात को उलझाने की कोशिश कर रहे हैं, मैं एक पक्का नास्तिक हूँ| इश्वर से मेरा दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है|
भै: मैं भी तो वही कह रहा हूँ| इश्वर को ना मानाने में तुम्हारा विश्वास है, बहुत गहरा है, और मैं उसकी सराहना कर रहा हूँ|
रा: तो फिर इतना समझ लीजिये की मुझे ये शब्द पसंद नहीं है| मैं नास्तिक कहलाना ज्यादा पसंद करूँगा|
भै: नास्तिक| हाँ, आज कल यही फैशन में है| आस्तिक होना अब 'कूल' नहीं माना जाता है| क्यूँ सही कह रहा हूँ ना मैं|
रा: नहीं, ऐसा नहीं है| मैं उन बेवकूफों में नहीं हूँ| मैं अपने ऊपर किसी की सत्ता को स्वीकार नहीं करता| मनुष्य से बढ़ कर मेरे लिए कोई दूसरा नहीं है| मैं ना तो अदृश्य भगवान् में मानता हूँ, ना उन ढोंगियों में जिनमें लोग आस्था रखते हैं|
भै: तुम्हें किसी की आस्था पे सवाल करने का हक नहीं है| क्यूंकि तुम्हारी किसी की सत्ता में ना मानाने की आस्था भी बहुत बड़ी है| जैसे मेरी भगवान् में आस्था तुम्हारे लिए खोखली है, वैसे ही भगवान् में ना मानाने की तुम्हारी ये आस्था मेरे लिए बेबुनियाद है|
रा: तो क्या आप उस ढोंगी सत्य साईं को भगवान् मानते हैं|
भै: नहीं, लेकिन मैं उसे झूठलाता भी नहीं हूँ| तुम ही ने तो अभी कहा ही मनुष्य से ऊपर कोई नहीं है| जब साधन और साधक और लक्ष्य तीनो मनुष्य ही हैं तो फिर सत्य साईं को भगवान् मानाने में क्या कष्ट है?
रा: आप फिर बात को उलझाने की कोशिश कर रहे हैं| मैं आपसे बस इतना पूछ रहा हूँ की क्या आप ये मानते हैं की कोई इंसान भगवान् हो सकता है?
भै: नहीं|
रा: देखा! मैं तो पहले ही समझ रहा था की आप बात को बस उलझा रहे हैं| (उसने यह बात तपाक से बोली और खुश हो गया| जैसे बच्चे के हाथ कोई नया खिलौना लग गया हो)
भै: नहीं! तुमने मुझे अपनी बात पूरी नहीं करने दी| कोई एक इंसान भगवान् हो ऐसा नहीं हो है, सब भगवान् हैं|
रा: क्या बकवास है? तो क्या मैं भगवान् हूँ? फिर क्यूँ आपने मुझे भोग लगाने के बजाये उसे भोग लगाया? यह सब झूठ है| आप बस अपनी बात मनवाना चाह रहे हैं|
भै: मैंने उसे भोग लगाया, उसने ले लिया| फिर तुम्हें भी लगाया लेकिन तुम्हें किसी का जूठा ग्राह्य नहीं था|
रा: मैं नहीं मानता| I am an atheist.
भै: will you please explain who is an atheist.
रा: Someone who denies the existence of god
भै: Denying the existence of something doesn't stop something from existing.
रा: ठीक है| एक पल के लिए मैं मान लेता हूँ की भगवान् है| तो क्या सबका एक ही भगवान् है?
भै: भगवान् कोई अलग नहीं| सब भगवान् हैं|
रा: मतलब सब बराबर के हुए|
भै: हाँ, बिलकुल!
रा: तो फिर क्यूँ कोई गरीब है, कोई बीमार है|
भै: हर सफ़ेद के सफ़ेद होने के लिए काले का होना जरूरी है| जैसे एक स्वस्थ्य भगवान् है, वैसे ही एक बीमार भगवान् भी है|
रा: आप जानते हैं ना की ये एक बड़ा ही बेतुका जवाब है|
भै: बेतुका हो सकता है पर गलत नहीं है| जरूरी नहीं की हर सही बात का तर्क हो|
रा: आपने कभी जानवरों को देखा है| उनके अपने घर में| वे भी जी रहे हैं भगवान् को बिना माने| बिना आरती किये, बिना दीया जलाये वो हमसे कहीं ज्यादा खुश हैं, सुखी हैं|
भैरो के पास इस बात का जवाब नहीं था| बीस-बाईस साल के सुख्ड़े ने उसे घेर कर परास्त कर दिया था| भैरो थोड़ी देर के लिए चुप हो गया और बगल ही में सो रहे कुत्ते को देखने लगा| राजेश्वर शायद अपनी जीत समझ चूका था| उसने बात को कुरेदना उचित नहीं समझा| वो उठा और ज्योंही चलने को हुआ... की भैरो ने उस पर झपट्टा लगा कर अपनी ओर खींचा| किसी बड़ी गाडी की जोर से ब्रेक लगाने की आवाज़ हुई| जब राजेश्वर संभला तो उसने देखा की बस का खलासी उसे गालियाँ दे रहा है और भैरो उसे तिरस्कार की भावना से देख रहा है| अगर भैरो ने सही समय पर झपट्टा ना मारा होता तो आज राजेश्वर किसी आवारा कुत्ते की तरह बस के नीचे आकर अपनी जान गवां चूका होता|
भैरो ने आकाश की तरफ देखते हुए कहा-देखि उसकी माया आज उसने तुम्हें बचा लिया| राजेश्वर ने हँसते हुए कहा, "वो मुझे नहीं बचा सकता, ना आप|" इस बार भैरो से रहा ना गया, उसने अपने अन्दर की आग उगल ही दी-यही प्रॉब्लम है तुम्हारे जेनेरेशन के साथ| किसी चीज़ का मोल नहीं करते तुम लोग| ज़िन्दगी बार-बार नहीं मिलती| प्रभु की दया से तुम अभी बच गए, वर्ना गए थे काम से| "वो इतना भी दयालु नहीं है, अगर होता तो इतने सारे लोगों को बेवक़ूफ़ नहीं बना रहा होता", राजेश्वर की बातों में वही बालहठ था| "यह एक और तरीका है इस दौर में 'कूल' बनने का, हर चीज़ को मजाक में उड़ा दो जैसे ज़िन्दगी कुछ है ही नहीं", भैरो अब गरम हो चूका था, "मौत से डर नहीं लगता तुम्हें?"
रा: नहीं!
भै: बको मत| आज कल के लौंडे बस बहस करना जानते हैं|
रा: आपके जेनेरेशन की भी एक प्रॉब्लम है|बताऊँ? आप लोग सच सुन नहीं सकते| मैं मौत से नहीं डरता क्यूंकि मैं भगवान् नहीं हूँ|
भै: चुप रहो| मेरा पारा और मत चढाओ|
रा: ठीक है तो फिर आप भी चुप हो जाइये|
भै: (बडबडाते हुए) मौत से डर नहीं लगता|हुंह! सब जेम्स बोंड ने सिखाया है|
रा: नहीं, जेम्स बोंड ने नहीं सिखाया है| मैं खुद जानता हूँ|
भै: क्या? जानते क्या हो तुम मौत के बारे में? छटांक भर के लौंडे चले हैं जीवन दर्शन देने|
रा: आप क्या जानते हैं मौत के बारे में? क्या आप कभी मरे हैं?
भै: तो तू क्या मारा है? भूत है तू? सब पता है तुझे परलोक के बारे में?
रा: हाँ मैं मरा हूँ| और ये लोक-परलोक कुछ नहीं होता| मैं मर के यहीं हूँ और आप जिंदा हो कर भी यही हैं| फर्क सिर्फ इतना है की मैं संतुष्ट हूँ और आप आज भी आडम्बर में लगे हैं|
भै: अब बहुत हुआ, ज़बान लड़ाना बंद करो| वरना दूंगा एक खींच के और सच में दम निकल जायेगा, समझे बेटा|
रा: मैंने कहा था ना, आपकी जेनेरेशन में हमारी जेनेरेशन से ज्यादा प्रॉब्लम है| आप सच सुन ही नहीं सकते|
भै: ठीक है... तो तू मर चूका है| कैसे और कब मरा तू?
रा: दो साल पहले, मैंने ख़ुदकुशी कर ली|
भै: मतलब बुजदिल है तू?
रा: ये तो मैं आपके बारे में भी कह सकता हूँ|
भै: ख़ुदकुशी क्यूँ कर ली तुने?
रा: आपने क्यूँ नहीं की?
भै: मत..मत..मतलब....मैं क्यूँ करूँ ख़ुदकुशी? मैं तो अच्छा भला जी रहा हूँ|
रा: तो इससे आप महान हो गए? जी कर ऐसा क्या कर लिया है आपने?मरे क्यूँ नहीं आप?(गुस्से से)
भै: मैं क्यूँ मरुँ?(डर कर)
रा: क्यूँ नहीं मरे आप? आपने ख़ुदकुशी क्यूँ नहीं की?
भै: मेरा परिवार है...
रा: मेरा भी था|
भै: नौकरी है, इज्ज़त है....
रा: मेरा भी था| इसमें ऐसा क्या है? मरे क्यूँ नहीं आप?
भै: मैं...मैं क्यूँ मरुँ मैं? मैं कमज़ोर नहीं हूँ?
रा: हाँ आप कमज़ोर नहीं हैं - कायर हैं आप| कायर! जीने की शक्ति नहीं है आपमें|
भै: मैं तो जी रहा हूँ| मरे तो तुम हो|
रा: इसको जीना कहते हैं आप| घर आ कर माँ से लड़ना| ऑफिस में बॉस से घुड़की खाना| बैंक का लोन| कार का कर्जा| घर का कर्जा, बहिन की शादी| जीवन है ये? ऐसे ही जीने का सपना देखा था आपने? याद कीजिये, क्या यही सपना देखा था आपने?
भै: जरूरी तो नहीं की हर सपना पूरा हो|
रा: ओह! तो आपको याद है अपना सपना| मुझे तो लगा था की आप वो सपना भी झूठला देंगे| १९९४ कॉलेज से निकलते हुए अपने दोस्तों से क्या कहा था आपने याद है?
भै: हाँ याद है| तब मैं तुम्हारे जैसा था| आवेश में कुछ भी बोल जाता है| अब ज़िन्दगी सामने है| सच्चाई सामने है....
रा: ये सच्चाई नहीं कायरता है| ना जीने के बहाने हैं ये सब| आपमें जीने की शक्ति नहीं है| आप वही करना चाहते हैं| सुबह से शाम तक रोज वही लताड़, मैं रोज नहीं मर सकता| मुझे जीना था| मैं आपकी तरह नहीं हो सका| आप ख़ुदकुशी क्यूँ नहीं कर लेते.....
भैरो सोच में डूब जाता है| उसके आँखों के सामने से वो सारे दोस्त, उसकी वो सारी बातें गुज़रती हैं जो उसने कभी कही थी| मैं मर क्यूँ नहीं जाता...हाँ मैं मर क्यूँ नहीं जाता???