Saturday, May 28, 2011

होना बातों का, असामान्य|

मेरी संस्था द्वारा बच्चों के लिए कार्यशाला आयोजित की जा रही थी| वहां कबीर भजन मण्डली का गायन भी था, सो मैं भी लार टपकाता हुआ वहां जा पंहुचा| कबीर भजन में अभी वक़्त था और बच्चे अपने काम में लगे थे| मैं भी उनके साथ हो लिया| एक समूह जो बाल-अखबार पर काम कर रहा था, मैं उनके साथ जा मिला| थोड़ी ही देर में मेरी बच्चों से दोस्ती हो गयी और मैंने उन सबका नाम पुछा| सबने अपना नाम बताया, एक को छोड़ कर| मैंने दोबारा उससे नाम पुछा पर उसने जवाब नहीं दिया|
मुझे लगा की वो मुझसे सकुचा रहा है और मैं उसके साथ मजाक करने लगा| मैंने कई बहाने किये पर वो कुछ नहीं बोला| मेरी एक सहकर्मी जो सुबह से उनके साथ काम कर रही थी, उसने कहा- "बहुत शर्मीला है, मुझसे भी कुछ नहीं बोला|" मुझे इस बात से खटका लगा, मैंने सोचा की इस बच्चे की चुप्पी तोड़नी ही होगी नहीं तो इस कार्यशाला का फायदा ही क्या होगा| मैं फिर से उससे बात करने की कोशिश करने लगा| पर पता नहीं क्यूँ मुझे उसके चेहरे पर शर्म का भाव नज़र नहीं आ रहा था| मुझे ऐसा लग रहा था की वो संकुचित नहीं परेशान है| उसके चेहरे से लाचारी झलक रही थी ना की संकोच| अब समूह के सारे बच्चे मेहनत से उकता चुके थे और उसका मजाक उड़ना शुरू कर दिया था| एक ने मजाक में कहा - भैया ये गूंगा है| पता नहीं क्यूँ मजाक में बोली गयी ये बात मुझे लग गयी| मैंने देखा की उसने चित्रकारी बहुत अछी की है| बच्चा संकुचित हो तो उसका असर हर काम पर पड़ेगा|
मैंने धीरे से उससे कहा, अपना नाम लिख दो यहाँ कागज़ पर, नहीं तो सबको पता कैसे चलेगा की ये किसने बनाया है| उसने झट से अपना नाम वहां लिख दिया| मेरे शारीर में बिजली सी दौड़ गयी और मैं सिहर गया|
उसके बाद मेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया| मैं वहां असहज महसूस करने लगा| कैसे हम खुद को मिली हुई चीज़ों को अनदेखा करते हैं| अनादर करते हैं हर उस वरदान का जो हमें प्राप्त है| मेरी सहकर्मी जो सुबह से उसके साथ काम कर रही थी, उसने एक बार भी ये नहीं सोचा की दुनिया में ऐसे भी कई लोग हैं जिन्हें वो सब कुछ नहीं मिला जो हमें मिला है| कोई शर्मा रहा है ऐसा सोच कर हम उससे मुह मोड़ लेते हैं और उसका विकास और अवरुद्ध हो जाता है| फिर मैं ये सोचने लगा की इसके साथ आगे काम कैसे किया जाए, ताकि ये बाकी बच्चों जितना ही सीख सके| इसका भी कोई जवाब मुझे नहीं मिला| बाकी बच्चों को उसे चिढाने में मज़ा आ रहा था| उन्हें डांटना भी मुझे उचित नहीं जान पड़ा| वो बच्चे हैं, और उसे अपने जैसा ही समझ कर चिढ़ा रहे थे| उनके मन में और कोई दुर्भाव नहीं था|

मैं खुद को लाचार महसूस कर रहा था| और अब तक कर रहा हूँ|

5 comments:

  1. यह पढ़ के मुझे एक इंसिडेंट याद आ गया. मेरा छोटा भाई सुन नहीं सकता, इसलिए, उसके बोलने में भी अडचने आती हैं. उसके जन्मदिन पर, सब बच्चे उसे चिढ़ा रहे थे. थोड़ी देर तक वो तंग होता रहा. उसके बाद, उसके अन्दर थोड़ा क्रोध आ गया. उसने स्वयं ही अपनी लड़ाई खुद करना शुरू कर दी. उसने अपना सामान घेरा और जो बच्चे सोफे पर कूद रहे थे, उनको रोका. मामा ने फिर म्यूजिक चला दिया, और सब बच्चे नाचने लगे.

    कभी कभी, हम उत्तर खोजने के चक्कर में ये भूल जाते हैं कि things have a way of taking care of themselves.

    I completely understand your conflict.

    ReplyDelete
  2. We are always bored and trying to find things which are not normal, excitement we call it. Forgetting that what we have conceived as normal is also special.

    ReplyDelete
  3. I don't understand the relevance of your comment in context to the post and/or my comment.

    ReplyDelete
  4. you said you understand my conflict. actually there was no conflict before I read your comment. But then the attention seeking human mind of mine got a reason for conflict. I thought it will be good to share it.

    ReplyDelete
  5. sum how i never liked this post of urs.....

    ReplyDelete